इंसाफ़

हमारी ग़लती भी जुर्म है उनका जुर्म भी माफ़ था,
मासूम डरता फिर रहा है गुनहगार बैख़ौफ था।
करोड़ों सपनों के क़ब्र पर सोने के महल बन रहे हैं,
इंसानियत की आबरू लूट रही है शर्मसार इंसाफ़ था।

सब ख़ुशहाल हों, बुद्धिजीवियों का अजीब प्रयास था,

कोई जींदगी जी रहा है, कोई जीन्दा लाश था।
मुरझाए चेहरे की आँखों में कोई सपना ख़ास था,
दो जून भोजन मिल जाए बस, जो ना सबके पास था।

पूरे देश को खिलाकर, अन्नदाता भूखा सो रहा था,
कोई मुनाफ़े से जेब भर रहा है, किसान क़र्ज़ के आँसू रो रहा था।
चहुँओर ग़ज़ब की विकास का यह दौर सा चला है,
सरकारी ख़ज़ाने भर रहे हैं, देश कंगाल हो रहा था।

-आनन्द

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